आज शाम हो गई, अभी तक भारत शांत है, लोग Corona से ज्यादा उसकी अफवाह…
Lockdown Chapter 4
धैर्य की कसोटी चल रही है, डर का माहोल बना हुवा है, लोग भयभीत है, चिंतीत है । सब का भय और चिंता समान नहि है, भिन्न भिन्न है । धार्मिक लोग इश्वर के शरण में है, प्रार्थना करते है, या तो कुछ न कुछ विधियाँ करते है । ज्यादातर लोगो का काम यही है, कुछ अति धार्मिक भ्रम में है और दुसरो को भ्रम में दालने का प्रयास करते है । बौधिक लोगो की चिंता का विषय मात्र Corona या Covid-19 नहि है, आने वाले दिनो में सामाजिक परिस्थितियाँ, आर्थिक नितियाँ, स्वास्थय संबंध चिंतायें है और यह बहुत ही व्याजबी कारण है ।
Corona आया है यह आजकी वास्तविकता है, कल चला जायेगा यह आने वाले दिनो की वास्तविकता है । इस बीच बहुत कुछ होने वाला है, दुनिया के सभी देशो का पुरा समीकरण बदल जाने वाला है । परिणाम क्या आयेगा यह किसीको पता नहि है । इसीलिये यह बडे धैर्य का समय है । शांत रहीये और अपना मनोविकार पर काबु रखो । सबसे अहम सवाल है समय कैसे पसार करे ? समय तो अपना काम करता है, मनुष्योको छोडकर, मनुष्य आज जोजनो दूर नीकल गया है । अब वापस प्रकृति के पास जाना संभव नहि है । हम कोंक्रीट के जंगल मैं बस गये है । अब क्या किया जाय ? यह प्रश्न उठना स्वाभिक है । पूरा मानव समुह आधुनिकता के नाम पर कोंक्रीट के जंगल में केद हो गये है । प्रकृति पीछे छूट गई है, ऋगवेद कालिन मानव समाज प्रकृति उपासक था । प्रकृति का गीत गाता था, और इसका आनंद सदैव लुटता रहेता था, विश्वामित्रने गाया था……
प्र पर्वतामुशती उपस्थादश्वेइच विषिते हासमाने ॥
गावेव शुभ्र मातरा रिहाणे विपात्छुतुद्री पयसा जवेते ॥1॥
कभी विश्वामित्रने बहती नदीको देखकर गाया होगा की – “पर्वतकी गोदसे नीकली समुद्र से मिलनेकी कामना रखनेवाली हरीफाई करती, दो घोडो समान, अपने बछडोको चाटने की चाह रखती दो श्वेत गायो समान, बियास और सतलज (नदी) पाणी के साथ दौड रही है ।“
यह था प्रकृतिका उपासक आज कोंक्रीट के जंगल में बैठनेवाला कवि कैसे प्रकृति की कल्पना कर शके यह संभव है ?
वेदो के साथ कर्मकांड, होम हवन तो बाद में जोड दिया गया और व्यापार शुरु कर दिया । हा, प्राचीन ऋषि अग्नि की स्तुति करता था, मगर वो इसे प्रकृति का एक हिस्सा मानता था, अपने जीवन का हिस्सा क्युं की जंगल में वो रात्री के दौरान प्रकाश देती थी, प्राणीयों से रक्षण करती थी और खोराक पकाकर खाने के लिये देती थी ।
ऋषि व्यापारी न थे साधक थे, प्रसन्न थे, उसे प्रकृति का गीत गाना पसंद था, चारो और फैली विशाल प्रकृति का रसपान करना उसे पसंद था और वो शांति का पूजारी था, निर्भय था ।
आज हम इश्वर का नाम जपते है, कोई कहता है एक साथ “ॐ नाद भारत भरमें लगावो Corona भाग जायेगा । बडे आश्चर्यकी बात है ! डरा हुआ मनुष्य इश्वरकी स्तुति कर शकेगा ? यह संभव है ? कौन सुनेगा डरा हुआ मानव को ? मानव दुसरा डरा हुआ मानवकी बात नहि सुनता तो देवता-देवीयाँ सुनेगी ? मृत्युका डर सता रहा है । तब जा कर याद आयी ? परमात्मा क्युं हमारी प्रार्थना सुने ? है किसी के पास सही जवाब ? जीस धरती पर पैदा हुये उस धरती को बिगाडना उनका स्वामी बनने नीकले हो ? धरती का रुदन कभी न सुना ! आज रोती धरती रौद्र बनी है, तब उसे प्रार्थना करने का दंभ कर रहे हो ?
प्रार्थना हृदय से की जाती है, प्रसन्नतासे की जाती है, प्रार्थना करनार प्रार्थी निर्भय होता है, डरपोक कायर नहि । आज हमारी प्रार्थना कौन सुनेगा ? इसीलिये मक्का से काशी, वेटीकन से जेरुसेलम तक धर्मस्थानो Self Coronation पर चले गये । हम लोभी बन गये थे, हमे स्वर्ग में अप्सरा की चाहत थी जो लोग पत्नीसे न मिल शका वो भोग स्वर्गमें 10 10 हुश्नकी परीयोंसे प्राप्त करने की तमन्ना रखते है ! स्त्री पृथ्वी पर माया थी, स्वर्गमें परी ! क्या बात है, यहां रजस्वाला है स्वर्गमैं ? हमारा इन्द्र स्वर्गमें भोगविलास करता है और हमे उनकी ईष्या आती थी ! कब अप्सरा हुश्नकी परियाँ से मिलन हो जाये उनके स्वप्न आते है । धर्मका ठेका जो बना लिया था उनके पास पहुचनेका ! अब सब कहां गया ?-
कबीर सच सच कहता था…..
साच कह्यो कोई माने नहि । जूठे सब पति आय ॥
मैं कहा जानु रामको । नयना कबहु दिठ ॥
सत्य हमें बुरा लगता था, जूठा प्रिय था अब 21 दिन की साधना करना, प्रकृतिकी माफी माग लो, शायद भोली प्रकृति मा प्रसन्न हो जाये……..इति अस्तु ।